भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अतीत के दंश / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
कभी-कभी आत्मा के गर्भ में,
रह जाते हैं कुछ अंश-
दुखदायी अतीत के,
जो उम्र के साथ-साथ,
फलते-फूलते-
लिपटे रहते हैं-
अमर बेल की मानिंद...
अमर बेल-
जो
पीडित आत्मा को सूखा कर-
बना देती है ठूँठ-
ठूँठ
जिस पर-
नही होता असर-
खुशियों की बरसात का
जिस पर नही पनपती
उम्मीद की काई...
ये दुखदायी अतीत के अंश
होते है जन्मान्ध
और कुँठित मन
सुन नही पाता
बदलते वक्त की आहट
कह भी नही पाता
मन की कड़वाहट
इनकी काली परछाई
नही छोड़ती कभी
आत्मा को अकेले
सालती रहती हैं-
टीस बन कर
उम्र भर तक-।