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अतृप्ति-भेंट / महेन्द्र भटनागर

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अब

क्या दे सकता हूँ तुम्हें
एक गढ़ी-बनी
स्थिर मूर्ति के सिवा !
बिखरी विभूति के सिवा !

जो हूँ
बन चुका हूँ
ढल चुका हूँ,
प्रदत्त कोश की अधिकांश साँसंे
गिन चुका हूँ,
फल चुका हूँ !

अब नहीं मुमकिन -
प्रयोग बतौर
तोडूँ-तराशूँ और,
अधबना रह जाएगा,
शेष न कह पाएगा !

ज़िन्दगी के इस चरण पर
कमज़ोर कंधों पर उम्र के
उतरता-डूबता सूरज मैं
क्या दे सकता हूँ तुम्हें
ऊष्मा की
पहचानी मांसल अनुभूति के सिवा।

तुम हो
उफ़नते अतल सागर की तरह,
जलती धधकती वासनाएँ तुम्हारी
अनापे अम्बर की तरह,
तुम्हें क्या दे सकता हूँ भला
हे भाविनी,

कल्पना प्रभूति के सिवा,
उत्तेजना आपूर्ति के सिवा !