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अथ मदिरास्तवराज / भारतेंदु हरिश्चंद्र
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निन्दतो बहुभिलोकैमुखस्वासपरागमुखै: ।
बल:हीना क्रियाहीनो मूत्रकृतलुण्ठतेक्षितौ ।।
पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा यावल्लुंठतिभूतले ।
उत्थाय च पुन: पीत्वा नरोमुक्तिमवाप्नुयात् ।।
अर्थात भले ही कुछ लोग इसकी - मदिरा की - निन्दा करते हों किन्तु बहुतों के मुख से निकलने वाली सांस को यह सुवासित करने का कार्य करती है । यह अलग बात है कि यह बल और क्रिया से हीन कर मूत्र से सिंचित धरा पर क्यों न धराशायी कर दे फिर भी मदिरा का सेवनकर्ता पीता है , पीता है , बार -बार पीता है और तब तक पीता है ,जब तक कि धरती माता का चुम्बन न करने लगे । वह फिर उठता है ,फिर पीता है और तब तक पीता जाता है जब तक कि उसकी नर देह को मुक्ति नहीं मिल जाती ।