अथ राग सोरठ / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग सोरठ
(गायन समय रात्रि 9 से 12)
298. स्मरण। उत्सव ताल
कोली साल न छाडे रे, सब घावर काढे रे॥टेक॥
प्रेम प्राण लगाई धागे, तत्त्व तेल निज दीया।
एक मना इस आरम्भ लागा, ज्ञान राछ भर लीया॥1॥
नाम नली भर बुणकर लागा, अंतर गति रँग राता।
ताँणे-बाँणे जीव जुलाहा, परम तत्त्व सौं माता॥2॥
सकल शिरोमणि बुणे विचारा, सान्हा सूत न तोड़े।
सदा सचेत रहै ल्यौ लागा, ज्यों टूटे त्यों जोडे॥3॥
ऐसे तन बुन गहर गजीना, सांई के मन भावे।
दादू कोली करता के सँग, बहुरि न इहि युग आवे॥4॥
299. विरही। ललित ताल
विरहणी बपु न सँभारे,
निश दिन तलफै राम के कारण, अंतर एक विचारे॥टेक॥
आतुर भई मिलण के कारण, कहि-कहि राम पुकारे।
श्वास-उश्वास निमिष न विसरे, जित तित पंथ निहारे॥1॥
फिर उदास चहूँ दिशि चितवत, नैन नीर भर आवे।
राम वियोग विरह की जारी, और न कोई भावे॥2॥
व्याकुल भई शरीर न समझे, विखम बाण हरि मारे।
दादू दर्शन बिन क्यों जीवे, राम सनेही हमारे॥3॥
300. उपदेश चेतावनी। धीमा ताल
मन रे राम रटत क्यों रहिए,
यह तत्त्व बार-बार क्यों न कहिए॥टेक॥
जब लग जिह्वा वाणी, तो लों जप ले सारंग प्राणी।
जब पवना चल जावे, तब प्राणी पछतावे॥1॥
जब लग श्रवण सुनीजे, तो लों साधु शब्द सुन लीजे।
श्रवणों सुरति जब जाई, ए तब का सुनि है भाई॥2॥
जब लग नैन हुँ पेखे, तो लों चरण-कमल क्यों न देखे।
जब नैनहुँ कछू न सूझे, ये तब मूरख क्या बूझे॥3॥
जब लग तन-मन नीका, तो लों जपले जीवण जीका।
जब दादू जीव आवे, तब हरि के मन भावे॥4॥
301. धीमा ताल
मन रे मेरा कौन गँवारा, जप जीवण प्राण अधारा॥टेक॥
रे मात-पिता कुल जाती, धन यौवन सजन सँगाती।
रे गृह दारा सुत भाई, हरि बिन सब झूठा है जाई॥1॥
रे तूं अंत अकेला जावे, काहू के संग न आवे।
रे तूं ना कर मेरी मेरा, हर राम बिना को तेरा॥2॥
रे तूं चेत न देखे अंधा, यहु माया मोह सब धंधा।
रे काल मीच शिर जागे, हरि सुमिरण काहे न लागे॥3॥
यहु अवसर बहुरि न आवे, फिर मानुष जन्म न पावे।
अब दादू ढील न कीजे, हरि राम भजन कर लीजे॥4॥
302. प्रति ताल
मन रे देखत जन्म गयो, ताथै काज न कोई भयो रे॥टेक॥
मन इन्द्री ज्ञान विचारा, तातैं जन्म जुआ ज्यों हारा।
मन झूठ साँच कर जाने, हरि साधु कहै नहिं माने॥1॥
मन रे बादि गहे चतुराई, तातैं सनमुख बात बणाई।
मन आप आप को थापे, करता हो बैठा आपै॥2॥
मन स्वादी बहुत बणावे, मैं जान्या विषय बतावे।
मन माँगे सोई दीजे, हम हिं राम दुखी क्यों कीजे॥3॥
मन सब ही छाड विकारा, प्राणी होहु गुणन थें न्यारा।
निर्गुण निज गहि रहिए, दादू साधु कहैं ते कहिए॥4॥
303. प्रति ताल
मन रे अंतकाल दिन आया, तातैं यहु सब भया पराया॥टेक॥
श्रवणों सुने न नैनहुँ सूझे, रसना कह्या न जाई।
शीश चरण कर कंपन लागे, सो दिन पहुँचा आई॥1॥
काले धोले वरण पलटिया, तन-मन का बल भागा।
यौवन गया जरा चल आई, तब पछतावण लागा॥2॥
आयु घटे घट छीजे काया, यहु तन भया पुराणा।
पाँचों थाके कह्या न मानैं, ताका मर्म न जाणा॥3॥
हंस बटाऊ प्राण पयाना, समझ देख मन माँहीं।
दिन-दिन काल गरासे जियरा, दादू चेते नाँहीं॥4॥
304. राज विद्याधर ताल
मन रे तूं देखे सो नाँहीं, है सो अगम अगोचर माँहीं॥टेक॥
निश अँधियारी कछू न सूझे, संशय सर्प दिखावा।
ऐसे अंध जगत् नहिं जाने, जेवड़ी खावा॥1॥
मृग जल देख तहाँ मन धावे, दिन-दिन झूठी आशा।
जहँ-जहँ जाइ तहाँ जल नाँहीं, निश्चय मरे पियासा॥2॥
भ्रम विलास बहुत विधि कीन्हा, ज्यों स्वप्ने सुख पावे।
जागत झूठ तहाँ कुछ नाँहीं, फिर पीछे पछतावे॥3॥
जब लग सूता तब लग देखे, जागत भरम बिलाना।
दादू अंत इहाँ कुछ नाँहीं, है सो सोध सयाना॥4॥
305. उपदेश। त्रिताल
भाई रे बाजीगर नट खेला, ऐसे आपै रहै अकेला॥टेक॥
यहु बाजी खेल पसारा, सब मोहे कौतिकहारा।
यहु बाजी खेल दिखावा, बाजीगर किनहुँ न पावा॥1॥
इहि बाजी जगत् भुलाना, बाजीगर किनहुँ न जाना।
कुछ नाँहीं सो पेखा, है सो किनहुँ न देखा॥2॥
कुछ ऐसा चेटक कीन्हा, तन-मन सब हर लीन्हा।
बाजीगर भुरकी बाही, काहू पै लखी न जाई॥3॥
बाजीगर परकाशा, यहु बाजी झूठ तमाशा।
दादू पावा सोई, जो इहि बाजी लिप्त न होई॥4॥
306. ज्ञानोपदेश। त्रिताल
भाई रे ऐसा एक विचार, यूँ हरि गुरु कहै हमारा॥टेक॥
जागत सूते सोवत सूते, जब लग राम न जाना।
जागत जागे सेवत जागे, जब राम नाम मन माना॥1॥
देखत अंधे-अंधे भी अंधे, जब लग सत्य न सूझे।
देखत देखे अंधे भी देखे, जब राम सनेही बूझे॥2॥
बोलत गूँगे गूँग भी गूँगे, जब लग सत्य न चीन्हा।
बोलत बोले गूँग भी बोले, जब राम नाम कह दीन्हा॥3॥
जीवत मुये-मुये भी मूये, जब लग नहीं प्रकासा।
जीवत जीये मुये भी जीये, दादू राम निवासा॥4॥
307. नाम महिमा। एक ताल
रामजी नाम बिना दुःख भारी, तेरे साधुन कही विचारी॥टेक॥
केई योग ध्यान गहि रहिया, केई कुल के मारग बहिया।
केई सकल देव को ध्यावे, केई रिधि सिधि चाहैं पावे॥1॥
केई वेद पुराणों माते, केई माया के संग राते।
केई देश-दिशन्तर डोले, केई ज्ञानी ह्वै बहुत बोले॥2॥
केई काया कसे अपारा, केई मरें खड़ग की धारा।
केई अनन्त जीवन की आशा, केइ्र करें गुफा में बासा॥3॥
आदि-अन्त जे जागे, सो तो राम-नाम ल्यौ लागे।
अब दादू इहै विचारा, हरि लागा प्राण हमारा॥4॥
308. भ्रम विध्वंसन। एक ताल
साधो हरि सौं हेत हमारा, जिन यहु कीन्ह पसारा॥टेक॥
जा कारण व्रत कीजे, तिल-तिल यहु तन छीजे।
सहजैं ही सो जाना, हरि जानत ही मन माना॥1॥
जा कारण तप जइए, धूप-शीतल शिर सहिए।
सहजैं ही सो आवा, हरि आवत ही सचु पावा॥2॥
जा कारण बहु फिरिए, कर तीरथ भ्रम-भ्रम मरिए।
सहजैं ही सो चीन्हा, हरि चीन्ह सबै सुख लीन्हा॥3॥
प्रेम भक्ति जिन जानी, सो काहे भरमे प्रानी।
हरि सहजैं ही भल मानैं, तातैं दादू और न जानैं॥4॥
चरण तुम्हारे सब ही देखूँ, तप तीरथ व्रत दाना।
गंग-यमुन पास पाइन के, तहाँ देहु सुस्नाना॥1॥
संग तुम्हारे सब ही लागे, योग यज्ञ जे कीजे।
साधन सकल यही सब मेरे, संग आपणो दीजे॥2॥
पूजा पाती देवी देवल, सब देखूँ तुम माँहीं।
मोको ओट आपणी दीजे, चरण कमल की छाँहीं॥3॥
ये अरदास दास की सुणिए, दूर करो भ्रम मेरा।
दादू तुम बिन और न जाणे, राखो चरणों नेरा॥4॥
310. उपास्य परिचय। वर्ण भिन्न ताल
सोइ देव पूजूँ,
जो टाँची नहिं घड़िया, गर्भवास नहीं अवतरिया॥टेक॥
बिन जल संयम सदा सोइ देवा, भाव भक्ति करूँ हरि सेवा॥1॥
पाती प्राण हरि देव चढ़ाऊँ, सहज समाधि प्रेम ल्यौ लाऊँ॥2॥
इहि विधि सेवा सदा तहँ होई, अलख निरंजन लखे न कोई॥3॥
यह पूजा मेरे मन माने, जिहि विधि होइ सु दादू न जाने॥4॥
311 परिचय हैरान खेमटा ताल
राम राइ मोको अचरज आवे, तेरा पार न कोई पावे॥टेक॥
ब्रह्मादिक सनकादिक नारद, नेति-नेति जे गावे।
शरण तुम्हारी रहै निश वासर, तिन को तूं न लखावे॥1॥
शंकर शेष सबै सुर मुनि जन, तिनको तूं न जनावे।
तीन लोक रटे रसना भर, तिनको तूं न दिखावे॥2॥
दीन लीन राम रँग राते, तिनको तूं सँग लावे।
अपणे अंग की युक्ति न जाणे, सो मन तेरे भावे॥3॥
सेवा संयम करै जप पूजा, शब्द न तिन्हैं सुनावे।
मैं अछोप हीन मति मेरी, दादू को दिखलावे॥4॥
॥इति राग सोरठ सम्पूर्ण॥