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अधूरी कसकती टीस में / सुरेश चंद्रा

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बचपना कौंधता है
अचानक ही

उम्र की स्लाइड से
मैं पीछे फिसलता हूँ
मोंटेसरी की प्रार्थनाओं में
जा गिरता हूँ
हाल्फ़ शर्ट की बाईं तरफ
रुमाल पिन किए हुए
सिस्टर क्रिसपिन हँस देती हैं
मेरी तोतली 'छोर्री' पर
'व्रूम' की आवाज़ निकालता हूँ
हाथ से स्टीएरिंग घूमाता हूँ
दौड़ पड़ता हूँ, स्कूल तक

लकड़ी की बेंच पर
चुरमुर करते हुए
पार करता हूँ अडोलेसेंस
बोर्ड्स की चिंता पेशानी पर लिये
नहीं दे पाता लाल गुलाब, 'नुज़्ज़त' को
बेस्ट-ऑफ-लक कहते हुए, झेंप जाता हूँ
मेरी प्रैक्टिकल की कॉपी, सोख लेती है,
उसी गुलाब की सूर्ख, दर्दीली पंखुरियाँ
मेरा कोई निशान नहीं छूटता उसकी नोटबूक में
बस वो मुझमे, कहीं दबी रह जाती है

पापा के सपने
मुझे उड़ा ले जाते हैं विदेश
जहाँ हर डिग्री के एंगल बनाती है
मंसूबे कातती जवानी
करियर और कॉरिडॉर के बीच
कॉलेज की लड़की, जिसे
चूमना नहीं आता था
कुतरती थी मुँह मेरा

अचानक चौंक कर उठता हूँ
और गिनती से वापस
आ पहुंचता हूँ गणना में
नौकरी से बिज़नेस तक
चश्मे के काँच पर भाप सा जमता हूँ
और पोंछ देता हूँ सारी हसरतें
अधेड़ होती मजबूरीयों के लिये

वो गाने, वो किताबें, वो मंसूबे, वो चाहतें
वो लोग सारे जो बीत कर, मुझमे पैठे हैं
कहते हैं-
एक बार मुड़ कर, लौट आ बेरहम
कुछ तो पूरा कर जा, अधूरी कसकती टीस में.