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अनकहा / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
काग़ज़ और क़लम के बीच
जो अनकहा रिश्ता है
शायद वह कविता है
शब्दों और होठों के बीच
कहने के बावजूद जो फिसलता गया
रेत की तरह मुट्ठियों से
वह समुद्र है कविता का
लहराता,मुझसे टकराता
चूर-चूर होकर भी मुझमें
हाहाकार मचाता
किसी बंजर ज़मीन पर
उगने की चाह लिए