अनगढ़ जनवादी कविता के आंसू / मृदुला सिंह
अप्रवासी मेहमतकशों के पांवों में
चिपक कर आई गाँव की मिट्टी
शहर में बरगद नहीं बन पाती कभी
उसके जीवन का उत्स
आदिम युग से सिर्फ नून भात ही रहा है
खट कर शरीर के निहुर जाने तक
नहीं देखा मैने कभी किसी
शहर में इन्हें अपना घर बनाते
एल्मुनियम के बर्तनों और
कथरी के दसान से
ज्यादा नहीं जुटती इनकी गृहस्थी
बदहाली ने
क से काम तक ही रोके रखा इन्हें
आज महामारी के दिनों में
उम्मीद के सारे द्वार बंद हो गए
राजपथ की रोशनी चमक नहीं रही
खून पसीने से सींची दुनिया का पराया बर्ताव
जब मुँह चिढ़ाने लगे
ऐसी दशा में यह दिलासा
कि घरबन्दी में कोई भूखा नहीं सोयेगा
बड़ा बोझिल लगता है
उन्हें अनसुना करना
और निकल जाना शहर से
मीलों की पैदल यात्रा पर
भूखे प्यासे बेहाल मजूरों को
राजधानी की सड़कों पर
दुनिया ने भीड़ की तरह देखा
वे सिर्फ भीड़ नहीं हैं
वे अनगढ़ जनवादी कविता की आंखों से टपके
आंसुओं के हर्फ़ हैं
कौन समझेगा इसे?
जुलुम के ताव पर देखना
फूटेगा एक दिन
क्रांति का बीज