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अनुनय / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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मैं लकीरें खींचता हूँ और तुम आकार दे दो!
जागकर ये स्वप्न देखे हैं इन्हें आकार दे दो!

अर्चना की वर्तिका यह निविड़ तम में जल पड़ी सी,
मौन मेरी साधना के मर्म की मधु निर्झरी-सी
याचना कवि की किरण आह्वान करती आ रही है,
कमल कोमल लालसा, पथ पर सिहरती जा रही है,

ज्योति गंगा जग गई है तुम जटा विस्तार दे दो!
मैं लकीरें खींचता हूँ और तुम आकार दे दो!

सृजन सम्बल पर सुरभिमय एक तुलसी दल चढ़ा दो,
पाँव अनजाने उठे हैं तो तनिक गति भी बढ़ा दो!
दो मुझे विश्वास का आधार भी, आशीर्वचन भी
जीत सकता हूँ इसी अधिकार से निष्ठुर मरण भी!

एक मैं माँझी अकेला संग में पतवार दे दो!
मैं लकीरें खींचता हूँ और तुम आकार दे दो!