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अनुष्ठान / महेन्द्र भटनागर

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ग़रीबी अब
अमीरी के न क़दमों पर झुकेगी !
हाथ फैलाते हुए
अब और दीखेंगे न
जूठे चार-टुकड़ों के लिए

मानव बुभुक्षित !

नग्न तन का ढाकने को औरतें
उतरे हुए अब वस्त्रा चाहेंगी नहीं !

सच है —
मिटेगी यह न युग की नव-जवानी अब
किसी की वासना की पूर्ति में !
हरगिज़ अलापेंगे नहीं
गायक कला-साधक
किसी क्षय-ग्रस्त जर्जर वर्ग के हित !

ग़रीबी ने बग़ावत का
प्रबलतम कर दिया एलान,
बुभुक्षित का
उठा है जाग फिर अभिमान !

लो, सारी दमित शोषित दुखी हत औरतें
बलिदान करने को खड़ीं तैयार !
युग की नव-जवानी मुक्त है,
नव-लालिमा से युक्त है !
उठा प्रेरक
नये कवि का नया संगीत है !
आकाश में तारों सरीखी
आज तो उसकी लिखी
ध्रुव जीत है !

उट्ठो, करोड़ों मेहनतकश नौजवानो !
विश्व का नक्शा बदलने के लिए ;
अणु-शक्ति से,
सुख से भरी
दुनिया बनाने के लिए अभिनव,
धरा पर शीघ्र लाने को
नया मानव !