अनूठे विचार / हरिऔध
जब न उस में मिला रसीलापन।
जीभ उस की बनी सगी तब क्या।
फूल मुँह से अगर न झड़ पाया।
बात की झड़ भला लगी तब क्या।
खोट घुट्टी में किसी की जो पड़ी।
वह बँटाने से कभी बँटती नहीं।
नाक कटवा ली गई कह कर जिसे।
काटने से बात यह कटती नहीं।
चाहते हो बनी रहे लाली।
पर पड़ा चाल ढाल का ठाला।
छूट पाता नहीं बिलल्लापन।
किस तरह बोल रह सके बाला।
जब हमीं निज भरम गँवा देंगे।
लोग तब क्यों भरम न खोलेंगे।
बोल जब हम सके सँभाल नहीं।
बोलियाँ लोग क्यों न बोलेंगे।
कब कहाँ पर किसे न भीतर से।
ढोल की ही तरह मिले पोले।
जब रहे बोलते रहे बढ़ बढ़।
कर सके कुछ कभी न बड़बोले।
और के दुख दर्द की भी सुधा रखें।
कस नहीं लेवें सितम पर ही कमर।
नित उसे हम नोचते ही क्यों रहें।
नोचने से नुच गई दाढ़ी अगर।
जब कलेजा और का हैं फाड़ते।
और कहते बात हैं ताड़ी हुई।
आँख तब क्यों फाड़ कर हैं देखते।
दूसरों की दाढ़ियाँ फाड़ी हुई।
क्या अजब जो मचल बुढापे में।
लड़ कई की कसर गई काढ़ी।
जो न पाये विचार ही पक तो।
क्या करेगी पकी हुई दाढ़ी।
क्यों किसी की बात हम जड़ते रहें।
जो जड़ें तो नग अनूठे ही जड़ें।
क्यों पड़ें हम और लोगों के गले।
जो पड़ें बन फूल की माला पड़ें।
तब सुधरते तो सुधरते किस तरह।
जब कि सकते सीख हम ले ही नहीं।
किस तरह तब वह भला जी में धँसे।
बात उतरी जब गले से ही नहीं।
क्या हुआ पंजे कड़े जो मिल गये।
आदमीयत किस लिए हो छोड़ते।
तोड़ना हो सिर बुरों का तोड़ दो।
क्यों किसी की उँगलियाँ हो तोड़ते।
पाँव भी रक्खे अहितपथ में न तो।
हित अगर कर दें न उठते बैठते।
कुछ किसी से ऐंठ क्यों फूले फिरें।
ऐंठ पंजों को रहें क्यों ऐंठते।
तो हुआ नाम क्या सधा मतलब।
जो चला काम सिर किये गंजा।
जो रही आनबान कान मले।
जो मिला मान मोड़ कर पंजा।
चुभ सका कम या बहुत ही चुभ सका।
कम दिया या दुख दिया उस ने बड़ा।
जान पर तो मेमने के आ बनी।
क्या मोलायम और क्या पंजा कड़ा।
दीन दुखियों पर पसीजें क्यों न हम।
देख उन की आँख से आँसू छना।
क्यों किसी की वे गरम मूठी करें।
है न उन के पास मूठी भर चना।
सब जगह वे ही सदा माने गये।
मान का जो मान रख करके जिये।
हम लथेड़ें तो लथेड़ें क्यों उसे।
खा थपेड़े लें न पेडे क़े लिए।
खोल दिल दान दें, खिला खायें।
धन हुआ कब धरम किये से कम।
धन अगर है बटोरना हम को।
तो बटोरें न हाथ अपना हम।
हैं बुरा काम कर बुरा करते।
यह बुरा काम ही बताता है।
दिल दुखा दिल दुखा नहीं किस का।
पाप कर हाथ काँप जाता है।
प्यार के सारे निराले ढंग जब।
छल कपट के रंग में ढाले गये।
हित-नियम आले न जब पाले पले।
तब गले में हाथ क्या डाले गये।
धर्म ही है साथ जाता जीव के।
तन चिता तक ही पहुँच पाया मरे।
रह गई धरती यहीं की ही यहीं।
कौन छाती पर गया धन को धरे।
क्यों न पाये थल भली रुचि आँख में।
क्यों बुरी रुचि हाथ से जाये पिसी।
जाय जम जो प्यार जड़ जी में न तो।
जाय गड़ छाती न छाती में किसी।
है सताना भला नहीं होता।
क्यों किसी को गया सताया है।
पक गये तो गये बला से पक।
क्यों कलेजा गया पकाया है।
दाम हो, या छदाम पास न हो।
पर बने मन न सूम-मन जैसा।
जान जाये न दमड़ियाँ देते।
जी न निकले निकलते पैसा।
चाह वालों की न दें चाहत बढ़ा।
लाभ का मद दें न लोभी को पिला।
लालसाओं का न दें लासा लगा।
जी न ललचायें बुरे लालच दिला।
ठीक कोई कर कभी सकता नहीं।
भाग, बिगड़े भाग, का फूटा हुआ।
टूट पड़ कर किस लिए हैं तोड़ते।
जुड़ सका जोड़े न जी टूटा हुआ।
जाँय रंग प्यार-रंगतों में हम।
सब जगह रंग जो जमाना है।
लाभ करके लुभावनी बातें।
जी लुभा लें अगर लुभाना है।
वह किये लाड़ लाड़ करता है।
है उखड़ता उखाड़ने से जी।
मत बिगाड़ें बिगाड़ने वाले।
कब न बिगड़ा बिगाड़ने से जी।
बद बनातीं कब नहीं बद आदतें।
छूट पाती है बुरी लत छन नहीं।
मन सहक कैसे नहीं जाता सहक।
क्यों बहकता मन बहक का मन नहीं।
हम धनी जी के रहें सब दिन बने।
हाथ में चाहे हमारे हो न धन।
तन भले ही हाथ में हो और के।
पर पराये हाथ में होवे न मन।
बात हित की क्यों बतायें हम उसे।
बूझ होते बन गया जो बैल हो।
रख बुरे मैला न कैसे मन मिले।
मेल क्यों हो जब कि मन में मैल हो।
कर बुरा अपना भला चाहें न हम।
हित हमारे हों न अनहित में सने।
जाय तन तन-परवरी पर तुल नहीं।
मतलबों का मन न मतवाला बने।