अन्तत: / विनोद विट्ठल
लम्बी बीमारी के बाद दिखे परिचित की तरह
किसी दिन अचानक दिखेगा वह दिन
जब महसूस होगा कि मुश्क़िल हो गया है
सिनेमा देखना
सड़कों पर चलना
नया नाम रखना
पत्नी को हँसा पाना
अण्ट-शण्ट खा पाना
बच्चे को समझा पाना
किसी के बारे में सोच पाना
किसी का इन्तज़ार कर पाना
या किसी अपरिचित को दोस्त ही बना पाना
हम बरसों से सुनते आए
किसी राक्षस को पहली बार देखेंगे
सोचेंगे आग लगने पर कुआँ खोदने वाली कहावत
और देखेंगे सभ्यता को भारी मन से जलते
सोचेंगे, काश ! ये किसी फ़िल्म का दृश्य हो
और लाइट चली जाए
या प्रोजेक्टर ही जल जाए
यकायक जैसे हम हो जाते हैं बड़े
बूढ़े इतने कि लगने लगें
फूट जाता है अण्डा या फटता है बादल
मर जाते हैं कम उम्र के अच्छे लोग
किसी वाइरस की तरह प्रवेश करती है कोई लड़की
हमें लगेगा कई-कई चीज़ें मुश्किल हो गई है, यकायक
आधे लोग उदास हो जाएँगे
आधे दुःख भरे गीत गाएँगे
आधे दर्शन की ओर भागेंगे
आधे गणित सिरे-से समझेंगे
आधे कम्प्यूटर की ओर देखेंगे
आधे अन्तरिक्ष में जाना चाहेंगे
कुछ खींचेंगे तस्वीरें
कुछ रिकॉर्ड करेंगे बातें
कुछ लिखेंगे आत्मकथाएँ और इतिहास-पुरातत्त्व की किताबें
कुछ बेपतेदार चिट्ठियाँ
एक वही होगा
जो महसूस करेगा सँकट का सूत्र
और प्यार करेगा !