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अन्तरण / कुमार अनुपम

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तुम्हें छूते हुए
मेरी उँगलियाँ
भय की गरिमा से भींग जाती हैं

कि तुम
एक बच्चे का खिलौना हो
तुम्हारा स्पर्श
जबकि लपेट लेता है मुझे जैसे कुम्हड़े की वर्तिका
लेकिन तुम्हारी आँखों में जो नया आकाश है इतना शालीन
कि मेरे प्रतिबिम्ब की भी आहट
भंग कर सकती है तुम्हारी आत्म-लीनता
कि तुम्हारा वजूद
दूध की गन्ध है
एक माँ के सम्पूर्ण गौरव के साथ
अपनाती हो
तो मेरा प्रेम

बिलकुल तुम्हारी तरह हो जाता है
ममतामय ।