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अन्तर्दाह / पृष्ठ 23 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
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उड़ती ज्यों नील गगन में
जलयुक्त तमस की ढेरी
वैसे इस व्यथित हृदय से
उड़ती प्रत्याशा तेरी ।।१११।।
व्याकुल लहरों को थपकी
दे - दे जब पुलिन सुलाता
तब हृदय व्यथा चुपके से
कोई कुरेदने आता ।।११२।।
जब मैं सोता रहता हूँ
सुख - सपनों के आंगन में
तब कौन हृदय में आ कर
हलचल भर देता मन में ।।११३।।
मेरे मानस की करुणा
रोती उर के कोने में
क्या कहूँ कि क्या सुख मिलता
भीतर - भीतर रोने में ।।११४।।
युग बीत गया है कितना
हम क्या जानें अनजाने ?
इस स्वप्नमयी संसृति में
किसको हम अपना मानें? ।।११५।।