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अन्तर्दाह / पृष्ठ 5 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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सारी संसृति की करुणा
मेरे अंतर में आ कर
चुपके से सिसक रही है
घन में शशि-सुमुख छिपाकर ।।२१।।

खो गयी अहो किस दिशि में
मेरी वह प्रेम - कहानी,
वेदना - विरह - सागर में
मैं डूब रहा मनमानी ।।२२।।

अब नहीं प्यार पा सकता
कोई इस अंतस्तल से,
देखो, बेकार पड़ा है
खारे सागर के जल - से ।।२३।।

इस मुकुल कली - से मन को
कोई ने तोड़ लिया था ,
कर में लेकर कौतुक में
अंतर से जोड़ लिया था ।।२४।।

बेसुध सुख के विभ्रम में
सोया था जान बसेरा ,
पर, लूट चला था कोई
होते ही मधुर सवेरा ।।२५।।