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अन्तर्दाह / पृष्ठ 7 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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सुख भी कैसा होता है
मैंने न अभी तक जाना,
बचपन का साथी दुख ही
मेरा जाना - पहचाना ।।२६।।

सुख - दुख करते रहते हैं
नित छूत - छुऔबल खेला,
मैं भ्रांत पथिक - सा लखता
दुनिया का पागल मेला ।।२७।।

जीवन - सागर के तट पर
मैं खड़ा विकल बिलखता,
हूँ क्षुब्ध, अवांछित, निर्मम
काँटों पर आता - जाता ।।२८।।

दृग - कंजों से झरती है
आँसू - मरंद की धारा ,
धू धू करके जग जलता
जलता है जीवन सारा ।।२९।।

यह रुदन और वह स्मिति
अम्बर से लगी धरा - सी,
सुख-दुख के बीच क्षितिज-सी
है ज्वानी अहो जरा - सी ।।३०।।