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अन्तर्दाह / पृष्ठ 9 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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वे दिन कितने सुन्दर थे
हम गिन भी नहीं सके थे,
हमको क्या-क्या करना था
यह चुन भी नहीं सके थे ।।४१।।

मैं हूँ बेसुध , पर सुधि के
निशि-दिन बादल मडराते,
इस विरह विकल ज्वाला पर
रह - रह कर नीर गिराते ।।४२।।

वह थी प्रवंचना, माया
अथवा उर्वशी अकल थी
जिसकी प्रतारणा में यह
मेरी चेतना विकल थी ।।४३।।

वह रूप कि जिसके सम्मुख
संसृति सुषमा शरमाती
उसकी अब स्वप्निल स्मृति
मन में सजीव - सी आती ।।४४।।

शशि मुख पर शशलांच्छन सी
काली अलकों की छाया
अब नहीं दिखाई पड़ती
उस दीपित तन की माया ।।४५।।