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अन्तर्द्वन्द / पवन चौहान

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यह दौर
चल रहा है लगातार मेरे साथ
मेरा साया बनकर
मेरी हर कमजोर नब्ज को
अंदर और बाहर दोनों किनारों से
दबाता हुआ बेरोकटोक
बिना किसी डर के

भाग रहा हूँ मैं अब
इस परछाई से
दूर, बहुत दूर
अपने आप को बचाता हुआ
गम के सैलाब को धकेलता
अपने घर से बाहर
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लगता है जैसे रचा लिया गया हो
चक्रव्यूह
सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए
कई आधुनिक हथियारों से लैस मैं
स्वंय को पा रहा हूँ असमर्थ
घिरता ही जा रहा
हर बार एक नए घेरे में
नई चुनौतियों के साथ
खुद को जोड़ता-तोड़ता
और यहां से वहां भागता

अब जैसे टूटने लगा है भ्रम
होने लगा हूँ मैं क्षीण
धीरे-धीरे
पल-पल
नई बिमारियों से जूझता हुआ

कसता चक्रव्यूह का घेरा
तोड़ रहा है हर उम्मीद
समझ आ रही है अब
डाक्टरों की झूठी तसल्ली
और उनके खर्चों का हिसाब भी
लेकिन जारी है कोशिश
तोड़ने को घेरा
शायद इस बार
जरुर होऊंगा आजाद मैं