अन्तर्द्वन्द्व / शिव कुमार झा 'टिल्लू'
जीने के पल मिले अनोखे
अंतर्मन से जी ना पाया
आशा में बैठा रहा प्यासा पर
मधुर सत्व रस पी ना पाया
शुष्क अश्क में धार नहीं अब
हिय में वसंत बहार नहीं अब
प्रतिक्षण रेत पर रगड़ रहा
चकमक बना कटार नहीं अब
खड़ा विवश गति-काल देखते
उजड़े मन को सी ना पाया
"अन्तर्द्वन्द्व" विकल धारा में
कर्म निलय पट बंद मिला
हर पौधे को समूल उखाड़ा
नहीं सलामत कंद मिला
कली-कली में काले धब्बे
कोई सुमन सही ना पाया
नीति आदि श्रृंगार वैराग्य का
सृष्टि में कोई मोल नहीं
जीवन गति यति और नियति में
भौतिक -भाग्य किल्लोल नहीं
सरल बाट पर चलो बटोही
कांचन धारा मिल जाएगी
अर्वाचीन कर्म नश्वर है
कलुष रैन ना टकराएगी
काल-मूल्य सदा पहचानो
सजल शांति का तान मिलेगा
अन्तर्द्वन्द्व के क्षितिज द्वार पर
पल-पल विप्लव गान मिलेगा