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अन्धकार / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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घोर अन्धकार की नींद से
नदी के छल-छल शब्द से, फिर जाग उठा...
देखा पांडुर चाँद ने वैतरिणी से अपनी आधी छाया समेट ली-
कीर्तिनिशा की ओर
धानसीढ़ी नदी के किनारे सोया था-पौष की रात-
अब मैं कभी नहीं जागूँगा, अब कभी नहीं जागूँगा।
ओ, नीली कस्तूरी आभा वाले चाँद!

तुम दिन का अंजोर लो, उद्दाम लो, स्वप्न लो,
भीतर की मृत्यु, शान्ति और स्थिरता
और अगाध नींद का जो आस्वाद है, उसे तुम बेध कर मार नहीं सकते
इसलिए तुम प्रदाह, प्रवहमान यन्त्रणा लो...
पता है चाँद,
ओ नीली कस्तूरी आभा वाले चाँद,
रात, क्या तुम जानती हो,
कि मैं बहुत दिनों तक अन्धकार के भीतर अनन्त मृत्यु में घुला-मिला
भोर के इस उजाले के उच्छवास में अचानक
यह जानकर कि मैं पृथ्वी का हूँ...
मैं डरा-
दुःख पाया, असीम दुर्निवार
पाया रक्तिम आकाश पर-उठकर
सूर्य ने सैनिक वर्दी में, दुनिया के आमने-सामने
रहने का मुझे निर्देश दिया है...
मेरा पूरा हृदय घृणा, वेदना, आक्रोश से भर उठा,
देखा कि सूर्य की गरमी से आक्रान्त पृथ्वी ने जैसे
करोड़ों सूअरों के आर्तनाद में उत्सव शुरू कर दिया है...
हाय, उत्सव!
हृदय के अविरल, अंधियारे में सूर्य को डुबोये-डुबोये
मैंने फिर सोना चाहा,
अन्धकार के स्तन और योनि के भीतर, अनन्त मृत्यु की तरह
घुल-मिलकर।

हे नर, हे नारी,
मैं तुम्हारी पृथ्वी को कभी जान नहीं पाया
किसी और नक्षत्र का भी नहीं हूँ मैं।
जहाँ का स्पन्दन, संघर्ष, गति, जहाँ उद्दाम, चिन्ता काज,
जहाँ सूर्य, पृथ्वी, बृहस्पति, कालपुरुष अनन्त आकाश ग्रन्थि,
सैकड़ों गिद्धों की पुकार,
गिद्धिन की प्रसव-वेदना का आडम्बर,
ये सब उतारते हैं पृथ्वी की भयावह आरती...
और घोर अन्धेरे में नींद के आस्वाद से मेरी आत्मा ललित,
मुझे क्यों जगाना चाहते हो?
हे समय ग्रन्थि, हे सूर्य, माघ निशीथ की कोयल
हे स्मृति, हे हिम हवा,
मुझे क्यों जगाना चाहते हो तुम सब?

अरबों अन्धकारों की नींद से, नदी के छल-छल शब्द से
मैं अब कभी जागूँगा नहीं,
धीरे-धीरे पौष की रात में धानसीढ़ी के कगार पर
नज़र फिरा कर नहीं देखूँगा कि पीले चाँद ने
वैतरिणी से अपनी आधी छाया कीर्तिनिशा की ओर गुटिया ली है।
कभी नहीं जागूँगा, अब कभी भी नहीं जागूँगा
मैं सोया रहूँगा...धानसीढ़ी नदी के आसपास