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अपना-अपना वर्तमान / सांवर दइया

Kavita Kosh से
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पीले पते-सा चेहरा लिए
हंसा वह आदमी
हंसी लेकिन उसकी
भर न सकी कहीं पुलक कोई
हताशाओं का इतिहास ओढ़े वर्तमान था वहां
टिमटिमा रहे थे कहीं दूर जो दीप एक-दो
  लो,अब तो उनमें भी न रही लौ !

खिले फूल-सा चेहरा लिए
दूधिया दांतों की छ्टा दिखाती
खिलखिलाई जो मुनिया
भर गया हर तरफ आलोक मनभावन
खुल-खुल गए निश्छलता के पृष्ठ-दर-पृष्ठ
आशाओं-उमंगों का दुशाला ओढ़े वर्तमान था वहां
जगमगा रहे थे दूर कहीं दीप असंख्य !