भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनापन / धनराज शम्भु
Kavita Kosh से
अपनापन का सिलसिला
श्रृंखलाबद्ध हो गया
अब अलगाव की घीसी-पीटी बातें
अकेलेपन की मरती दुनिया में
अजगर की तरह फूफकारती
सांसे भरती, और आपसे टकरा-टकरा कर
पागल बन जाती है ।
फिर अनुकूल ऋतु से
कोमल भावनाएँ अंकुरित होतीं
बुझी आंखों के अनदेखे सपने
सोख गये आंसुओं की दिशाओं में
अपनत्व का एक छलछलाता हुआ
एक नवीन युग
नयी आशाएँ लिए आता
और दिखाता, ये मानव की कमज़ोरियाँ हैं
तकदीर हंसती है
फिर एकाएक सिर थाम कर रोती
उस प्राकृतिक मुस्कान के लिए
जो तिजोरियों के दराज़ों में दम तोड़ देती है
फिर रोष में पर्दाफाश करने की आशंका में
बहरे ज़माने के कानों में
चिल्ला कर थक जाता और फिर
संकेत की सहायता से
एक सूने दायरे में अपने आप को समा लेता
मान कर कि यह सौंधी आवाज़
अपनापन का सुकून है ।