भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी धूप के लिए / प्रियंका पण्डित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस दिन मैं
सम्भव हो जाऊंगी
ख़ुद के लिए
उस दिन मैं निमंत्रित करूंगी
अक्षरों को
तमाम ख़ुशबुओं को हवाओं के साथ पुकारूंगी
पानी की बूंद-बूंद में
ज़मीन पर पकती हुई रेशा-रेशा भाप की तरह
बिना किसी तरह का रास्ता बनाए
मैं स्निग्ध आसमान पर
एक कविता रचना चाहूंगी
सिर्फ़ अपनी धूप के लिए...