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अपने-अपने सपने / असंगघोष

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रेल की पांतों के उस ओर
आसमान छूती अट्टालिकाओं में
रहते लोग
कई-कमई सपने देखते हैं
उनके सपने पूरे भी होते हैं
टूटे बगैर।

इस ओर बनी दलितों की झुग्गियों के पास
पाँतों पर से
हर रोज धड़-धड़ाती हुई
कई-कई ट्रेनें गुजर जाती हैं
फिर भी मांग्या, दित्या, एतरी, थावरी की
गहरी नींद नहीं टूटती
हमेशा की तरह थके-माँदे
सोये रहते हैं
अपनी झुग्गी में,
उस समय
सपना नहीं देखरहे होते कि टूट जाता
उन्हें तो जागते हुए
सपना देखने की आदत-सी होती है

रिक्शा खींचते हुए,
माँग्या देखता है सपना
अपनी माँ का इलाज़ कराने के लिए
पैसा जुड़ जाने का
तभी कोई कार
उसके रिक्शे को ठोकर मार
क्षतिग्रस्त कर देती है
और साहब खिड़की से मुँह निकाल
कहता है
”क्यों बे मादर नियम से नहीं चलता
चले आते हैं साले हरामखोर
शहर का यातायात बिगाड़ने’

रिक्शे में बैठी सवारी भी
उसे ही डाँटती है
राहगीर उसकी दुर्दशा पर हँसते हैं
और उसका सपना टूट जाता है।

घर-घर जाकर
चौका-बर्तन करती पत्नी एतरी भी
उसी समय बर्तनों की चमक में
देख रही होती है
कुछ पैसा जोड़
अपने नन्हे बेटे दित्या को पढ़ाने,
पन्नी-गोबर बीनती
कण्डे थाप हाट बाजार में
बेचते-बेचते
जवान हो चुकी बेटी
थावरी के ब्याह का सपना
जो हाथों से काँच का कीमती बर्तन गिरते ही
चूर-चूर हो जाता है
और तुरत दिखाई देने लगते हैं-
कचरे के ढेर में पन्नी-गोबर बीनती बेटी,
नन्हें हाथों से बूट पालिश करता बेटा

जब वे चारों मिलते हैं हताश तो उन्हें
पाँतों पर गुजरती ट्रेन के नीचे
अपने-अपने सपने बुलाते दिखाई देते हैं
वे सबके सब
भूल जाते हैं अपने सपने
उन्हें नहीं सुनाई पड़ती
सीटी बजाती ट्रेन की आवाज
सिर्फ दिखाई देता है
ट्रेन का धड़-धड़ाते
सपनों पर से गुजर जाना
इस तरह
वे रोज अपने सपनों को
कुचलता हुआ देखते हैं

फिर भी क्या करें
वे नहीं छोड़ पाते
सपने देखना

पुनः पुनः देखने लगते हैं सपने
जो शायद देर अबेर
पूरे होंगे कभी?
या कभी भी नहीं!