अपने आंसुओं को सहेजकर रखो माई / नंद भारद्वाज
अपने शाइस्ता आँसुओं को यहीं सहेजकर थाम लो माई!
मत बह जाने दो उन बेजान निगाहों की सूनी बेबसी में –
जो देखते हुए भी कहाँ देख पाती है
रिसकर बाहर आती धारा का अवसाद
कहां साथ दे पाती है उन कुचली सदाओं का
जो बिरले ही उठती है कभी इन्साफ की हल्की-सी उम्मीद लिये
उन बंद दरवाजों को पीटते
लहू-लुहान हो गये थे हाथों को
और जख्मी होने से रोक लो माई
इन्हीं पर एतबार रखना है अपनी आत्मरक्षा में
ये जो धड़क रहा है न बेचैनी में
अन्दर-ही-अन्दर धधकती आग का दरिया –
उसे बचा कर रखो अभी इस बहते लावे से
अफसोस सिर्फ तुम्हीं को क्यों हो माई
सिर्फ तुम्हारी ही आँख से क्यों बहे आँसू
कहाँ हैं उस कोख की वे जिन्दा आँखें
जिसमें किसी नाबदान के कीड़े की तरह
आकार लिया था वहशी दरिन्दों ने
शर्मसार क्यों न हो वह आँगन
वह देहरी
जहाँ वे पले बढ़े और लावारिस छोड़ दिये गये,
जहाँ का दुलार-पानी पाकर उगलते रहे जहर
क्यों शर्मसार न हुई वह हवा
अपनी ही निगाहों में डूब कर मर क्यों
वे इन्सानी बस्तियाँ?
(पाकिस्तान में सरेआम बदसलूकी और जुल्म की शिकार उस मजलूम स्त्री के लिए, जिसे मुल्क की सब से बड़ी अदालत भी इन्साफ न दिला सकी)