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अपने सिंहासन से उतर कर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अपने सिंहासन से
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।

बैठ अकेला मन-ही-मन
गाता था मैं गान,
तुम्‍हारे कानों तक पहुँचा वह सुर,
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।

तुम्‍हारी सभा में कितने ही गुणी
कितने ही हैं गान
मिला तुम्‍हारा प्रेम, तभी गा सका आज
यह गुणहीन भी गान।

विश्‍व-तान के बीच उठा यह
एक करुण सुर।
लेकर हाथों में वर-माला
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ खड़े हो गए ठिठककर।