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अपने हिस्से की छाया / नीरज दइया
Kavita Kosh से
मैं थक गया
ठूंठ कहता है-
यह भी कोई जीना है
लाओ तुम्हारी कुलहाड़ी ।
मैं पहचानता हूं
प्रार्थना के भीतर छिपी लाचारी
ठूंठ करता है प्रणाम
मुक्ति की कामना में !
ठूंठ के हाथ डरते हैं
जड़ों से
और मेरे हाथ
कुलहाड़ी से ।
ठूंठ के भीतर
अभी तक मैं देखता हूं
एक लक-दक वृक्ष
और अपने हिस्से की छाया ।
खेलती है छुप्म-छुप्पी
ऋतुओं के संग
छाया अपने हिस्से की
अपने हिस्से की छाया ।