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अपने ही घर में / जितेन्द्र निर्मोही
Kavita Kosh से
अपने ही शहर में अंजान हुए
अपने ही घर के मेहमान हुए
गीतों ने रूख मोड़े
ग़ज़लों ने मुख मोड़े
दिलकश संवादों ने
सामाजिक साथ छोड़े
परिचय से भटके, बेनाम हुए।
रूसवाई साथ लगी
डूब गये होंसले
बाढ़ के बहाव बहे
प्यार के वो घोंसले
लहर लहर उठ गई, तूफान हुए।
जैसे कोई मेले में
भीड़ के से रेले में
भटक जाए बालक जो
सांझ के झमेले में
अंगुली के आसरे गुमनाम हुए।