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अपनों से, अपने ही बरबस / नईम
Kavita Kosh से
अपनों से, अपने ही बरबस छूट रहे हैं।
क्या बचाव है गतिगर्भित दुर्घटनाओं से?
दिल्ली से फरियाद करें क्या
रिरियाना क्या पटनाओं से।
इनसे अगर बच गए तो फिर,
हैं कुछ छुतही महामारियाँ-
पोर-पोर में कोढ़ कौम के बिना बताए फूट रहे हैं।
आप ज़िंदगी के मानी ही पूरी उम्र तलाशा करिए,
कभी भीड़, नारे, जुलूस तो खुद को कभी तमाशा करिए।
महज मखौलों में जीते हम
संसद हो या हों चौराहे,
अपनी ही नंगई बताते मान-मूल्य सब टूट रहे हैं।
ग्राफ गिरानी के, गु़र्बत के आँख-मूँदकर भाग रहे हैं,
भाग्य मुनाफे अय्याशी के सोए सोए जाग रहे हैं।
ग़लतबयानी के हल्कों में-
भाषा की हो रही फजीहत,
रब्ब न जाने कहाँ सो रहा, बंदे छाती कूट रहे हैं।
बहुत तेज रफ़्तार वक्त की,
अपनों से अपने ही बरबस छूट रहे हैं।