अपमान सहे / महेश सन्तोषी
हमने तुम्हें खो दिया,
भुला भी दिया,
फिर न सपने देखे,
न सपने बोये।
वर्षों तुम्हारे नाम पर हम
अपमानित रहे,
बिना यादें ढोये, रिश्ते ढोये।
कभी तुमसे प्यार का एक
रिश्ता तो था,
धड़कनों में इबादतें थी,
प्राणों में कोई फरिश्ता तो था।
एक रोशनी थी
जो सीधी आत्मा से आती थी,
हमारा पूरा अस्तित्व, उस रोशनी में
चमकता तो था।
पर वक्त ठहरा भी नहीं रहा,
हमें आगे चलने को रास्ते भी नहीं दिये,
कोई दूसरा ही आ गया एक दिन
हमारी मांग का सिन्दूर लिये।
उम्र की दोपहरियों में जब
एक बार साथ बदल गये
न मैं बैठी रही,
न तुम बैठे रहे वहीं
उम्र की आखिरी सांझ के लिये।
फिर हमने अतीत में नहीं झांका,
जो हमारे साथ थे वो झांकते रहे,
तुमसे हमारी नज़दीकियाँ, दूरियाँ
आँखों से, हाथों से, नापते रहे।
जिसे हमने स्वीकारा था
वह अगली सुबह थी
भविष्य था, प्रारब्ध था
हमारे सम्पूर्ण, समर्पण
सम्पूर्ण स्वीकृतियों को
वे मन ही मन नकारते रहे।
अब ये आँसू अतीत के लिए हैं,
या वर्तमान या भविष्य के लिए?
आँखों में आँसू बाकी ही कहाँ बचे हैं
वक्त की किसी तस्दीक के लिए?
हमने पी भी लिये, पलकों में सी भी लिये
अपमान के अनगिन आँसू
कुछ तुमसे मिले अँधेरों के लिए
कुछ तुमसे मिले उजालों के लिए।