अपरिचय / हरिओम राजोरिया
सुबह रास्ते में कुछ स्त्रियों को देखा
छोटे-छोटे झुण्डों में
होने को सब अलग-अलग
पर एक ही तरह से
एक ही रास्ते पर
एक ही काम को जातीं
हाथ में पुराने कपड़ों के सिले
एक जैसे झोले काँख में दबाए
अज्ञात भय लिए सड़क पर मैं भी
और वे भय रहित
महामारी वाले वायरस से परे
जिससे भयभीत दिग-दिगन्त
दूर घर में बैठे परिजनों से आँख बचा
टेबुल पर फेंक आया चलित फ़ोन
निकल आया सड़क पर
जो माने जैसा मानने को स्वतन्त्र
भला, कोई कब तक
बन्द रह सकता दीवारों से घिरा
उनके चेहरों पर नहीं उदासी का भाव
न थकन आँखों में
श्रम करने को तैयार
काम की हुक और हुलस भीतर
पहिये भले ही रुक गए हों देश में
पर चल रहे इन स्त्रियों के पाँव
किसी के पास नही जा सकता
रोककर पूछ नहीं सकता कुछ बात
मज़दूर स्त्रियों के सापेक्ष
सड़क पर खड़े बिजली के खम्भे के
होने की तरह ही मेरा होना
अपने इस तरह होने से एकबारगी
कोई भी हो सकता भयभीत
कि आपका होना भी उसी तरह
जैसे अकेली एक सड़क
बबूल का एक पेड़
आराम पसन्द काम करने वालों और
कठोर श्रम के बीच
अपरिचय की इतनी बड़ी दीवार
डर था मेरे भीतर
और सुबह का सूरज निकल रहा था
चलता चला जाता आगे और आगे
छोटे छोटे झुण्डों में मिलते जाते
स्त्रियों के और नए समूह
अलग-अलग दबे रँगों के झोलों के साथ
एक स्त्री झोले के साथ
हाथ में टूटी चप्पल लिए चल रही
खेतों में खड़ी फ़सलों के स्वभाव
खेत, हँसिया, गेहूँ की सूखी बाल
और इन स्त्रियों के बारे मे
कितना कम जानता
जबकि अज्ञात वायरस के बारे में
कितना कुछ जान गया हूँ
जिसका भय लिए चल रहा रास्ते पर
इस समय क्या बात कर रही होंगी
दुनिया रुक सी गई है
पर ये कहाँ जा रही हैं रोटी बान्धकर
चैत काटने निकली इन स्त्रियों से
कितना कम परिचय एक कवि का
कैसे झिझकते हुए कविता में प्रवेश
इन स्त्रियों के बारे में
दुख-दुख जीवन का
कितना कम ज्ञान
इनके लिए कितने कम शब्द
एक कवि के शब्दकोश में
कहने को कहता रहता हूँ
कि कितना प्यार हमे वतन से
पर कितना कम जानते हम वतन को
और वतन में रहने वाले बहुसँख्यक
श्रमशील स्त्री समाज को