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अप्प दीपो भव / यशोधरा 5 / कुमार रवींद्र

और अब
यशोधरा रीझ रही

देह के तटों से वह
दूर हुई
सारी ही धरती है
नेह-छुई

उसमें वह
साँसों को बीज रही

कल तक जो दुख थे
वे नहीं रहे
ताप सभी
बरखा के संग बहे

और वह...
नदी होकर सीझ रही
द्वीप नहीं
अब वह आकाश है
फूल रही -
वह प्रभु की बास है

यों ही अब
दिन-दिन वह छीज रही