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अप्प दीपो भव / सुजाता 3 / कुमार रवींद्र
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बुद्ध -उसके देवता
भीतर समाये
एक करुणा का झरा निर्झर
हृदय में
बँध गयीं संज्ञाएँ सारी
एक लय में
मिट गये सब भेद थे
अपने-पराये
सोचती बैठी सुजाता
यह हुआ क्या
पींजरे से मुक्त होने को
सुआ क्या
लग रहे सम्बन्ध
जैसे हुए साये
जन्मदिन है देवता का
सूर्य लौटे
खुले नभ भी
जो रहे ओढ़े मुखौटे
किसी ने हैं गीत
पर्वों के सुनाये
खीर उसने
देवता को थी खिलाई
वही उसके रक्त में
जैसे समाई
खुल गये वे द्वार
जो थे जंग-खाये