भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब ऊ भेलोॅ खोंटा छै / राजकुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नौकर अब नै नौकर हमरोॅ, बदलै रोज लँगोटा छै
पिपरी सें चुट्टी, चुट्टी सें अब ऊ भेलोॅ खोंटा छै

बहुरूपिया अहिनों कि, गिरगिट भी देखी केॅ कानै छै
छै करेंट भरलोॅ चोरका, खुद्दन बाबा रं फानै छै
गोड़ दबाबै ली बोलौं तेॅ, दाबै सीधे ठोंठा छै
पिपरी सें...

कहै सिपाही सच्चा तोरोॅ, पक्का चौकीदार तोरोॅ
महाचोर रोॅ लच्छन भरलोॅ, बतबै पहरेदार तोरोॅ
खुटिया सें जुल्फी, जुल्फी सें अब ऊ भोलोॅ झोंटा छै
पिपरी सें....

टेढ़ोॅ-मेढ़ोॅ चाल चलै अब, गाल बजाबै में माहिर
उल्लू बनाबै में पारंगत, माल बनाबै में माहिर
गोड़ छिकै धरती पर अब नैं, आँखी में परकोटा छै
पिपरी सें...

अगरों केॅ सब भाँफी गेलै, देखी केॅ शुरूआत सगर
समझी गेलै लोग, हवा में फैली गेलै बात सगर
जानी गेलोॅ छै अबकी सब, ई.भी.एम. में नोटा छै
पिपरी सें...