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अब छत पर बिस्तर नहीं लगते / भावना सक्सैना
Kavita Kosh से
बरसों बीत गए
चाँदनी में नहाए हुए
अब तो छत पर
बिस्तर नहीं लगते।
रिमोट, प्लेस्टेशन...
हाथ हुए जबसे
दादा कि कहानियाँ
भटक गईं रस्ते।
साँझ को मिलता नहीं
कोई चौबारों पर
आप ही आप
कट गए रस्ते।
बैठे हैं चुपचाप एयरकंडिशनर में
भूल गए गर्मी की मस्ती
और खेल में काटे
दिन हँसते हँसते।
वो गिट्टियाँ...
अक्कड़-बक्कड़
साँप-सीढ़ी, कैरम,
कँचों के मासूम से खेल।
बेकार कपड़ों से बनी गुड़ियाँ
मरी परंपराओं की तरह
बस मिलती हैं
म्यूजियम में।
दादी भी हाइटैक...
ला देती हैं बार्बी,
दादा के खिलौने
रिमोट से चलते।
हाल दिल के
दिलों में रहते हैं
औपचारिकताओं के हैं
नाते-रिश्ते।
आधी रात तक
बतियाता नहीं कोई
क्योंकि छत पर तो
अब बिस्तर नहीं लगते।