भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब नहीं / हरेराम बाजपेयी 'आश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन्दगी बन गई है बोझ
मैं इन्कार तो नहीं करता,
पर अब जियेँगे, इसलिये
कि मरता क्या नहीं करता।
बहुत ढो चुके, पर
अब न ढोएंगे हम।
प्रस्तरों की अर्चना
मैं रात दिन करता रहा,
भाग्य के साये में सोया
और कर्म से डरता रहा,
बहुत सो चुके पर,
अब न सोएंगे।
दर्द क्या है इसका उन्हें।
एहसास भी हो न पाए,
मन मथा है तब कहीं
आँसुओं के रत्न पाए,
बहुत रो चुके पर
अब न रोयेंगे हम।
खो दिया सब कुछ कहूँ क्या,
विश्वास पाने के लिये,
हर तरह के नाच नाचे
मन को रिझाने के लिये,
बहुत खो चुके, पर
अब न खोएंगे हम॥