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अब भी वही / रमेश कौशिक
Kavita Kosh से
पहले
झरे पत्ते
फिर गिरी टहनियाँ और शाखें
अंत में
तना भी टूट गया
ठूँठ मात्र रह गया
न गौरैया
न गिलहरी न कपोत
न तोता, न मैना
अब
सिर पर सवार है
एक कठफोडवा
बदन पर लग चुकी है
दीमक फफूंद और
काई
किन्तु इसका नाम इतिहास में
अब भी सदाबहार है
मेरे भाई