भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब माँ है न निवास है / दीप्ति गुप्ता
Kavita Kosh से
बाहर से जब लौटती थी तो माँ को बैठा देख
घर में एक निवास का एहसास होता था
अब एक ठंडा एहसास जकड लेता है
माँ की मुस्कराहट देख मन खिल उठता था
अब माँ को न पाकर मन मुरझा जाता है
माँ के होने से घर कितना गुनगुना था
चैन मुझे अपने आगोश में लिए रहता था
पर, अब एक बेचैनी हरपल सतात्ती है
पूरब की दीवार कैसी चहकती रहती थी
झरोखे रह-रह के खिलखिलाते रहते थे,
अब ये हरदम उदास हुए बिसूरते रहते हैं
इन्हें क्या हो गया है, माँ तो मेरी गई है?
अब माँ है न निवास है न गुनगुना एहसास है
जीवन बस उदास, उदास और उदास है