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अब शायद कोई फरियाद / रामगोपाल 'रुद्र'

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अब शायद कोई फरियाद नहीं है!

एक समय था, याद बहुत आती थी,
अब उसकी भी राह रुकी लगती है;
बाहर की अँधियारी हँस जाती है
दीपित थी जो चाह, चुकी लगती है!
लगता है, यह घर आबाद नहीं है!

'टिकना मुश्किल है' कहकर जिस घर को
छोड़ दिया, उसमें अब क्यों ठहरोगे!
लेकिन, गुजरोगे जब कभी इधर से,
तो मेरी हालत पर तुम्हीं कहोगे
अचरज है, कुछ भी बरबाद नहीं है!

पर, ज्यों ही चौखट पर पाँव धरोगे,
पहरे पर की छाँव पाँव धर लेगी!
पहचानेगा कौन तुम्हें, सूरत से?
पूछोगे तो ख़ुद सुध ही कह देगी
'क्या जानूँ, अब कुछ भी याद नहीं है!'