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अब सुनहरे ख़्वाब से / विनीत पाण्डेय
Kavita Kosh से
अब सुनहरे ख़्वाब से आँखों की दूरी है बहुत
चार रोटी काम के बदले मजूरी है बहुत
जान कर भी झूठ का सिक्का है चलता अब यहाँ
बोलती सच ये जुबाँ भी बे-शऊरी है बहुत
पा रहा हर शय वह क्योंकि एक खूबी उसमें है
उसके लहजे में शुरू से जी हुज़ूरी है बहुत
शेर का मजमून होता ग़ौर के क़ाबिल मगर
शेर कहने का सलीक़ा भी ज़रूरी है बहुत
लिख चुका हूँ जो हुआ है ज़िन्दगी में अब तलक
पर अभी मेरी कहानी तो अधूरी है बहुत