भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब सुबह से धूप गरमाने लगी / प्रेम भारद्वाज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज सुबह से धूप गरमाने लगी
पर्वतों की बर्फ पिघलाने लगी

बंद है गो द्वार कारागार का
पर झरोखों से हवा आने लगी

फिर मुरम्मत हो रही है छतरियाँ
बादरी आकाश पर छाने लगी

छिड़ गई चर्चा कहीं से भूख की
गाँव की चौपाल घबराने लगी

क्या करें हदबंदियों पर अब यकीं
बाड़ ही जब खेत को खाने लगी

इतना गहरा तो हुआ तल कूप का
लौट कर अपनी सदा आने लगी

कब तलक तेरा भरम पाले रहूँ
नींव से दिवार बतियाने लगी

जो दुहाई दे रहे थे प्रेम की
खौफ उनसे रूह अब खाने लगी