भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब हम मोहन से अनुरागे / बिन्दु जी
Kavita Kosh से
अब हम मोहन से अनुरागे।
जब तक सोए तब तक सोए, जब जागे तब जागे॥
दाग पड़े थे मन में भव भ्रान्ति भाव से दागे।
भाव रत्न बन गए वही जब प्रीति रीति रस दागे॥
श्वान समान फिरे विषयों के दर-दर टुकड़े माँगे।
झूम रहे हैं अब मतंग से बँधे प्रेम के धागे॥
आत्म ‘बिन्दु’ तट पर बैठे थे कलिमल काग अभागे।
जाने कहाँ गए जब हरि के कृपा कोर शर लागे॥