अबकी बार / तरुण भटनागर
जन जन की है यही पुकार,
अबकी बार,
एक चाल,
एक जुगाली,
एक लीद,
एक उबासी,
सिर्फ और सिर्फ़ एक कतार,
सिर्फ और सिर्फ़ एक खामोशी,
एक खुरों की आवाज,
एक से गले में लटकते,
लकडी के बम्बे और घण्टो की आवाज,
हमेशा,
हर बार,
बार-बार।
तिक्त मैदानों को
सूखे बेजान जंगलों को
राख की तरह ठण्डी
रंगहीन चरागाहों को
बस उसी जगह तक,
जहाँ होते आये जमा,
निरुद्देश्य बस पीछा-पीछी,
बस वहीं तक,
बस वहीं तक,
अबकी बार,
बार बार,
जन जन की है यही पुकार।
फूटते हों तो फूटें,
हजार हज़ार रास्ते,
पर उन पर से न गुजरने की चाहतों में,
देह पर मक्खी और कीडे,
और उनको चुगने मंडराते कौवों की,
एकमात्र चिंता से,
ऐतिहासिक बेखयाली में,
सिर डुला,
सींग झिडक,
धूल फुंफकार,
पूंछ पटक,
लत्ती घुमा,
अबकी बार।
एक-सा मौन,
एक से सपाट चेहरे,
एक से अर्थहीन सपने,
एक-सी मौत,
एक-सी मुस्कान,
एक से झुके सिर,
कतारबद्ध एक से,
कहीं बहुत पास गढी जा रही,
बेहद नई भाषा के दौर में,
खाज खुजली,
अचीन्हे की तिक्तता सा,
यह बार बार,
हर बार,
गुजरना तमाम लोगों का,
हो जाना जन-जन की यही पुकार।
आँखों पर बंधी है पट्टी,
कपडे के गंदे थैले में क़ैद हैं थन,
भौंकता है कुत्ता पीछे-पीछे,
लीद, पेशाब और कीचड से सना रास्ता,
धूल और बेनूरी में पसरा,
शताब्दियों से यथावत,
क्या हुआ अगर अब भी है,
अबकी बार।
खींच दे,
गर कोई नया रास्ता,
या लिख ही दे एक इबारत साफ़ सुथरी,
आकाश पर,
मारा जायेगा
गडरिये की गोलियों से।