भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अयप्पा पणिक्कर / अग्निशेखर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने तुम्हे जिसके अनुवादों से जाना
वह कल फ़ोन पर रो रही थी
मेरी आत्मा की सीपियों में
भर गए है तुम्हारे गीत

तुम नही जानते हो
कवि की सीपियाँ
मोहताज नहीं होती स्वाति-नक्षत्र की

ओ खुरदुरे नारियल की तरह
भीतर से तरल कवि
मैंने तुम्हे तुम्हारी अनुवादक के आँसुओं में
साफ़ साफ़ देख लिया है
तुमने स्वयं भी बादलो के ऊपर से
किसी पंछी को उड़ते नहीं देखा होगा
पर मैंने तुम्हें देख लिया है
कल रात जब मै भीग रहा था
तुम्हारी अजानी स्मृतियों से
हालांकि 'दस बजे' शीर्षक से
तुम्हारी कविताओं में मैंने
पहले ही चीन्ह लिया था तुम्हें

पर यह जो तुम
अपनी तरह के 'कुरुक्षेत्र' के बीच छोड़
चल दिए उसे
बिना बताये
शायद नाराज़ होकर
शायद किसी संदेह में पड़कर
शायद टूटकर आखिरी पत्ते की तरह
शायद समय की विक्षिप्तता से तंग आकर

क्या कहूँ अयप्पा
पहुँचने नहीं देते हो किसी नतीजे पर
तुम्हारी स्मृति में बहाए आँसू
मुझे विकल किए है
दुनिया में अभी कितना कुछ बाकी है
जो तय नहीं है
जैसे अजनबी संबंधो के नाम
जैसे हर रात दस बजे फ़ोन पर पूछना -
कैसी हो ...
और रिसीवर रख देना मुखर मौन में

कविता और अनुवाद के बीच
शब्द और भाव के बीच
सुर और लय के बीच
जो चीज़े प्राय: छूट जाती हैं
उनका आँसुओं में ढलकर
मोतियों में बदलना
मैंने इससे पहले कभी नहीं जाना

अयप्पा
मै तुम्हारे इन बीजाक्षरों का क्या करूँ
अनुवाद से परे की दुनिया में
शायद अब तुम भी नहीं रहे
ठीक सुना कल रात मैंने फोन पर
'अब मै किससे बात करूँ...'