अयोध्या-3 / उद्भ्रान्त
घाट
सरयू के घाट पर
सूर्य की किरणों के परावर्तन से
चमकती लहरों में
अपने हाथों-पाँवों को धोते
और मुँह पर पवित्र
सरयू-जल के छींटे मारते
मैंने यही सोचा कि
एक सफल
प्रजावत्सल जीवन
जीने के बाद भी
राम को अतीव
दुख का कौन-सा नगीना
शूल की तरह
चुभ रहा था हृदय में
कि उन्होंने अपने परिजनों,
कुटुम्बियों,
मित्रों-अनुचरों सहित -
किया सामूहिक आत्मोत्सर्ग ?
क्या वह दुख था
पत्नी और
सर्वाधिक प्रिय अनुज
की आत्महत्या का !
कारण जिसके
वे स्वयं थे ?
किसी भी महान आत्मा का अन्त
क्यों होता है दुखद
और अपने
अन्तिम क्षणों में वह
क्यों महसूस करता है
एकाकी ?
क्यों होता है उसे मोहभंग ?
चाहे वह कृष्ण हों,
बुद्ध हों,
यीशु हों,
हजरत मोहम्मद हों
या फिर
गाँधी ही क्यों न हों ?
क्या दुख ही है
जीवन का अन्तिम सत्य ?
जो बहेगा अंततः
सरयू के
चमकते हुए
निरन्तर
प्रवाहमान जल में ?