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अराध्य से / मोहन अम्बर
Kavita Kosh से
मैं बना आरती दीप, मगर तुम ज्योति न मेरी बन पाये।
मैं किसी देव-घर के तममय सूनेपन से जब ऊब गया,
तब किसी ज़िन्दगी के ग़म में सरगम लेकर मन डूब गया,
पर निठुर तुम्हारी निठुराई हर जगह बनी की बनी रही,
मैं बना अर्चना-गीत मगर तुम गूंज न मेरी बन पाये।
मैं झुका जलधि की ओर मांगने स्नेह लुटाने दुनियाँ को,
फिर उड़ा गगन पथ से बरसाने मेंह सजाने दुनियाँ को,
पर निठुर तुम्हारी निठुराई हर जगह बनी की बनी रही,
मैं बना सावन-मेघ मगर तुम बूँद न मेरी बन पाये।
पग थके बहुत पथ में लेकिन मैं रूका नहीं चलता आया,
था लुटा बहुत जग में लेकिन मैं मिटा नहीं ढलता आया,
पर निठुर तुम्हारी निठुराई हर जगह बनी की बनी रही,
मैं बना आदमी आज, मगर तुम जीत न मेरी बन पाये।