अरी ओ आत्मा री / अज्ञेय
अरी ओ आत्मा री,
कन्या भोली क्वाँरी
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गईं ।
अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा-
सम्भ्रम-अवगुण्ठित अंगों को
उस का ही मृदुतर कौतूहल
प्रकाश की किरण छुआएगा ।
तुझ से रहस्य की बात निभृत मे
एक वही कर पाएगा ।
तू उतना, वैसा समझेगी वह जैसा जो समझाएगा ।
तेरा वह प्राप्य, वरद कर उस का तुझ पर जो बरसाएगा
उद्देश्य, उसे जो भावे; लक्ष्य, वही जिस ओर मोड़ दे वह-
तेरा पथ मुड़-मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा ।
तू अपनी भी उतनी ही होगी जितना वह अपनाएगा ।
ओ आत्मा री,
तू गयी वरी
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गईं ।
हाँ छूट चला यह घर, उपवन,
परिचित-परिगण, मैं भी, आत्मीय सभी,
पर खेद न कर, हम थे इतने तक के अपने-
हम रचे ही गए थे यथार्थ आधे, आधे सपने-
आँखें भर कर ले फेर, और भर अंजलि दे बिखेर
पीछे को फूल :
-स्मरण के, श्रद्धा के, कृतज्ञता के, सब के-
हम नहीं पूछते, जो हो, बस, मत हो परिताप कभी ।
जा आत्मा, जा
कन्या-वधुका-
उस की अनुगा,
वह महाशून्य ही अब तेरा पथ,
लक्ष्य, अन्न-जल, पालक, पति,
आलोक,धर्म :
तुझ को वह एकमात्र सरसाएगा ।
ओ आत्मा री
तू गई वरी,
ओ सम्पृक्ता,
ओ परिणीता,
महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गईं ।