अर्धनारीश्वर / कुन्दन शर्मा / सुमन पोखरेल
कहीं कोई आकाश
मेरा भी होगा
कहीं कोई धरती
मेरी भी मानी जाएगी।
मैं तो तुम्हारी ही सृजना का एक हिस्सा,
दोष किसे दूँ?
तुम्हें, या खुद को
या फिर अपने भीतर पनपते हुए विरोधाभास को?
कितना छुप-छुपकर
कितना छुपाकर, खुद को जिया मैंने यहाँ,
पर मेरे अंतर्मन धिक्कार नहीं सका मुझे।
मेरे लिए
मेरे सारे जज्बात स्वाभाविक थे,
लेकिन कोई नहीं निकला इसे समझने वाला।
अगर जन्म सच है, तो
हम क्यों स्वीकार नहीं कर रहे
कि यह ले सकता है कोई भी रूप ।
तुम्हारी सोच की सीमा तय हो जाने से
मैं दोषी नहीं मानी जाती
सिर्फ उसके अंदर नहीं होने पर।
स्वीकार किया था तुमने
अर्धनारीश्वर को यहाँ,
फिर क्यों
हड्डी, चमड़ी, मांस में
किसी के शरीर और प्राण में
तुम मानने को तैयार नहीं?
मैं कोई भी हो के जनम ले सकती हूँ।
मैं नारी या पुरुष
पुरुष में नारी,
नारी में पुरुष,
कुछ भी होकर पनप सकती हूँ, जी सकती हूँ।
मैं भी वही संतान हूँ,
मत त्यागो मुझे इस तरह ।
हीनता से अपमानित होकर
तुम्हारे स्नेह से,
मैं खुद हो के जीने का हक माँग रही हूँ,
इस आकाश के नीचे
निर्भय खड़े होने का सामर्थ्य माँग रही हूँ।
उसके बाद कहीं कोई जीवन
मेरा भी होगा,
कहीं कोई
मेरा भी इंतजार कर रहा होगा ।
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