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अलग-अलग दर्द / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
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उन्हें नहीं मालूम
दर्द रीढ़ में है या तालू में।
काफ़ी रात गए वे आते हैं
दर्द से मुक्ति के लिए छटपटाते हैं
कभी अपने बच्चों को पीटते हैं
कभी अपनी स्त्रियों को ग़ाली देते हैं
और अन्धेरी रातों में
जब पीड़ा बर्दाश्त के बाहर हो जाती है
तो पत्नियों की जली-कटी सुनते हुए
खर्रांटे भरने लगते हैं।
वे संख्या में कई हैं
(और उनका दर्द भी शायद असाध्य नहीं)
मगर एक-दूसरे की चीख़ नहीं सुनाई पड़ती।
कुछ झोपड़ियाँ और टाट की दीवारें
उन्हें अलग किए हैं
अकेला और बेख़बर।