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अवकात / बीरेन्द्र कुमार महतो
Kavita Kosh से
वो कर रहे चहुंओर
कत्लेआम,
दिकू संग बैठ बना रहे
मॉडल,
समूल नष्ट करने की,
और तुम रिरया रहे हो
बैठ,
उसी परदेसी के संग?
कभी
भाषा के नाम पर
कभी
संस्कृति के नाम पर
तो कभी
अस्मिता और पहचान के नाम पर,
लूट रहे हैं,
अखड़ा में झूम रहे हैं
दिकू,
सहिया मेहमान बन,
जो खुद जूझ रहे हैं
अपने को खोज रहे हैं
इतिहास के पन्नों में,
वो वातानुकूलित कोठरी में
बैठ,
दिखा रहा तुम्हें
सीखा रहा तुम्हें
बता रहा तुम्हें
तुम्हारे ही घर
तुम्हें,
तुम्हारी अवकात...!