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अवर्णित पीर / विनीत मोहन औदिच्य
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श्यामता का रंग देता कृष्ण का आभास
प्रीति की मन में अलौकिक सी जगाता प्यास
मन है सुंदर, नैन चंचल , गात करता मान
शांत भँवरे नित्य करते, रूप का रस पान।
सौम्यता का रूप हो तुम, शुभ्र लगते पांव
सर्पिणी से घोर काले, केश देते छांव
मुख दमकता यामिनी में और उन्नत भाल
पर कपोलों पर तुम्हारे अश्रुओं का जाल ।
नाम ले ले कर तुम्हारा मैं गया हूँ हार
खोल ना पाया तुम्हारे भेद का आगार
सोच में डूबी हुई सी पर अधर हैं मौन
धैर्य धरती का लिए तुम ही कहो हो कौन?
द्वार पर ठिठकी हुई सी, पग पड़ी जंजीर
मौन की भाषा में कहतीं तुम अवर्णित पीर ।।